डॉ शंकर लाल 'सुधाकर' रचित 'काश्मीर के प्रति' एक प्रबंधात्मक खंड काव्य है | चतुष्पदी छंद में निबंधित यह प्रबंध काव्य एक सजग नागरिक की देश भक्ति का उदघोष है जिसमें रचनाकार काश्मीर के पौराणिक एवं ऐतिहासिक वृत्त को अपने ढंग से काव्यंकित करता है |
स्थान स्थान पर कवि ने काश्मीर के ऐतिहय वृत्त को उजागर करने के लिए वहाँ के प्रशासक राजा महाराजाओं की महिमा का भी बखान किया है तथा काश्मीर की पौराणिक पहचान को भी उजागर किया है | इतिहास के पृष्ठ पलटता हुआ कवि कहता है -----
अकबर महान के कारण तू ! मुगलों का भव्योद्यान बना |
जहाँगीर पुत्र, मुमताज़ ताज, का क्रीडाराम ललाम बना||
जहाँगीर पुत्र, मुमताज़ ताज, का क्रीडाराम ललाम बना||
इससे आगे की व्यवस्था को उदघाटित करते हुए वे कहते है -----
था गुलाब सिंह हृद का गुलाब , कविता प्रिय पंडित काश्मीर |
जन प्रिय शासक था भूप बना, शार्दूल सरस ‘रणवीर’ धीर ||
जन प्रिय शासक था भूप बना, शार्दूल सरस ‘रणवीर’ धीर ||
संदर्भानुसार कवि ने काश्मीर के कुछ प्रसिद्ध प्रशासक राजाओं की महिमा का वर्णन किया है जिससे काश्मीर का इतिवृत्त कुछ अधिक स्पष्ट हो सके |
बहुत पहले दिनकर तथा मैथिलिशरण गुप्त ने जिस चौपाये छंद का प्रयोग किया था , वही छंद 'काश्मीर के प्रति' में व्यवहृत किया गया है | दिनकर कहते हैं ------------
इस पार हमारा भारत है , उस पार चीन जापान देश |
मध्यस्थ खड़ा है दोनों में, एशिया खंड का यह नगेश ||
मध्यस्थ खड़ा है दोनों में, एशिया खंड का यह नगेश ||
श्यामा नारायण पाण्डेय ने भी हल्दीघाटी महाकाव्य में इसी छंद का प्रयोग किया है --------
रण बीच चौकड़ी भर भर कर , चेतक बन गया निराला था |
राणा प्रताप के घोड़े का, पड़ गया हवा से पाला था ||
राणा प्रताप के घोड़े का, पड़ गया हवा से पाला था ||
वैसे खंड काव्य के शास्त्रीय नियम अनुसार प्रत्येक सर्ग के बाद छंद परिवर्तित हो जाता है किन्तु 'काश्मीर के प्रति' के पाँचों सर्गों में इसी एक चौपाये छंद का प्रयोग किया गया है |
प्रस्तुत प्रबंध काव्य में रस,अलंकार,काव्य गुणादि के प्रयोग सहज भी हैं और सायास भी हैं| अलंकारों के प्रयोग के लिए कवि अधिक उदार प्रतीत होता है, प्रारंभ में ही अनुप्रास के सहज प्रयोग के साथ अग्रसर होता है --------
पर्वत पयस्विनी पादप गन , पुष्पावलि पावन विविध रंग |
रूपक, उपमा, व्याज निंदा, प्रतीक, दीपक, भ्रांतिमान, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का पर्याप्त प्रयोग है | जैसे ---
उत्प्रेक्षा-
नव-वधु सपति उनमें मानों, यक्षिणी यक्ष सँग सजी हुई
संदेह -
संदेह -
अथवा सुरललना नाथ-साथ, सुर-सरिता में रति भरी हुई
व्याजस्तुति -
व्याजस्तुति -
गाँधी हिंसा से डरता है, वृण सा हिय में पीड़ित होता |
उसके वचनों पर पंडित है, रण हेरि श्याम-शोणित होता ||
उसके वचनों पर पंडित है, रण हेरि श्याम-शोणित होता ||
जहां तक प्रतीक संयोजना का प्रश्न है इस प्रबंध काव्य रचना में घ्राण बिम्ब, दृश्य बिम्ब, स्पर्श बिम्ब, अनुगूँज बिम्ब, चलचित्र बिम्ब आदि के प्रयोग हैं |
भाषा प्रांजल तो है किन्तु इसमें अनेक स्थानों पर ब्रजभाषा के संस्पर्श आरोपित भी लगते हैं | संस्कृत के तत्सम तथा तदभव शब्दों के अतिरिक्त उर्दू फारसी, अंग्रेजी तथा देशज शब्दों के भी प्रयोग बाहुल्य दृष्टव्य हैं |
प्रस्तुत काव्य रचना में कवि का पांडित्य तथा उसकी मौलिक कल्पनाओं के सन्निवेश वर्ण्य और कथ्य की रोचकता प्रदान करते हैं
कहीं कहीं कवि ने बड़े ही विरल और आकर्षक काव्य प्रयोग किये हैं, यथा --
>हाटक घी सब पिघल पड़ा, यों हाट बाट चौराहे पर |
बूंदी से मुंड लुड़कते थे तलते जिमि नगर कराहों पर ||
>कन्या का शील भंग होता, यह देख पिता क्रोधित होता |
परवश था दुष्ट पठानों से, बेचारा सिर धुनकर रोता ||
परवश था दुष्ट पठानों से, बेचारा सिर धुनकर रोता ||
>अचला चल अचल चलायमान, दिक्पाल निमग्न विचारों में |
रसिया, अमरीका,मिश्र, अरब, पड़ गए ब्रिटेन विचारोंमें ||
रसिया, अमरीका,मिश्र, अरब, पड़ गए ब्रिटेन विचारोंमें ||
कहीं अभिद्यापरक कथ्य है तो कहीं कथ्यों में लक्षणा के गहनार्थ छुपे हुए हैं| बिम्ब और प्रतीकों के अभिनव प्रयोग देखे जा सकते हैं तथा प्रांजल भाषा की ओजस्विता भी पाठकों को प्रभावित करती है |
अंत में कहा जा सकता है कि यह काव्य कृति देशभक्ति और आत्म गौरव से पूर्ण, साहित्य सौष्ठव से संपन्न एक ऎसी ऐतिहासिक तथ्यात्मक काव्य कृति है जो काश्मीर के प्रति अनेक विलुप्त अध्यायों को सामने रखकर हमें रसानंद में सराबोर कर देती है |