ओ काश्मीर ! तेरा शासन ,पलटा पैंसठ से उभय बार |
पाकेश अयूब याह्या खाँ को, उन्नति से होता दुःख अपार ||१||
भड़काते कभी मुस्लिम जन को, इस्लामवाद का दे नारा |
मिथ्या प्रपंच फैलाता था , वाहित कर गुप्तचरी धारा ||२||
गुजरात द्वन्द को सन्मुख रख, दुनियाँ अनृत प्रचार किया |
मानो मिथ्या भाषण व्रत को, कलि-सद्र्श स्वयं ही धार लिया ||३||
तुझको अपने करगत करने, नित नए बहाने खोजता था |
भारत नंदन कानन तू , किस विधि आवे यह सोचता था ||४||
तेरा ही एक हठात विमान, पश्चिम की दिशि को मोड़ लिया |
कर भस्म उसे सम्बन्ध तोड़, घर बैठे झगड़ा मोल लिया ||५||
बिन कारण कारण खोज कोई, अड़ता था अड़ियल टट्टू सा |
बांध फरक्का जल विवाद, आ धमका वजर बट्टू सा ||६||
अमरीका से ले साहाय्य - युद्ध, चाऊ से पाकर आश्वासन |
तेरी सीमा पर नित्य नये, षड्यंत्र रचाता मनभावन ||७||
भारत पर डाला भार प्रबल, शरणागत जन का दिन दूना |
उकसाने बंग प्रजा जन को, दोषा रोपण करता ऊना ||८||
पर काश्मीर ! तू पूछ गंग से, क्या गुज़ारा बंगाले में |
तेरे ही जानी दुश्मन ने, गज़ब ढहे बंगाले में ||९||
बंग-देश से धन लेकर, पोषित पश्चिम का पाक हुआ |
बंगाली-जन को श्रमिक बना, स्वामी पश्चिम का पाक हुआ ||१०||
पिस गयी बंग जनता दुःख से, निर्धनता नंगी नाच उठी |
जूँ रेंगी ना शासन श्रुति पर, कष्टों से प्रजा कराह उठी ||११||
सन सत्तर मास दिसंबर में, हो गये चुनाव बंगाल में |
अपने दल के साथ मुजीवर, जीत गये बंगाल में ||१२||
मांग करी सत्ता को सोंपो, जनता के तुम हाथों में |
जनता का शासन तुम दे दो, जनता के ही हाथों में ||१३||
होते गत यों दिन महिने, तब मांग बढ़ी बंगाले में |
टाल मटोल करी याह्या ने, जोश बढ़ा बंगाले में ||१४||
दफ्तर में जाना बंद किया, प्रिय प्रजातंत्र का नारा था |
शेख मुजीवर की जय हो, जय बंगला देश हमारा था ||१५||
याह्या ने टिक्का चपरि-भेज, सेना का तंत्र सम्हाला था |
जनता की इस गति-विधि पर, मानों पाला सा डाला था ||१६||
भुट्टो से करके कपट मन्त्र, निर्घोषण का तब वचन दिया |
अधिकाधिक सोंपूं जनता को, शासन, याह्या ने वचन दिया ||१७||
सेना को देकर कपट हुक्म, पाकेश पधारे थे ढाका |
करनी सदभाव मयी वार्ता, संग सोह रहे भुट्टो आका ||१८||
मन मोर मुजीवर नाच उठा, अवलोक हरित तरु का सपना |
बंगला है पाकस्तानी का, है पाक पियारा भी अपना ||१९||
कर कपट मंत्र दे अनृत मोड़, पाकेश गए रावल पिंडी |
हो गई ध्वनित ढाका नगरी, तड़ीता सी तड़की भूसुंडी ||२०||
यह निशा नहीं साक्षात मृत्यु , ये तारे नहिं अंगारे थे |
होली का हर्ष अमर्ष हुआ, तोपों के रव नक्कारे थे ||२१||
मार्शल-ला का हुक्म हुआ, सम्पूर्ण पूर्व बंगाले में |
जय बंगलादेश, मुजीबर जय, ये गूंज उठा बंगाले में ||२२||
वह बंग बन्धु, वह बंग सिंह, अपने घर में था नज़र बंद |
जनता ने 'शासन को सोंपो ' की मांग ध्वनि को कर बुलंद||२३||
नृशंस लूट खसोट हुई, लूटा सतीत्व तव अबला का|
बच्चों को लूटा जननी से, सिन्दूर भाल से महिला का ||२४||
धन-धान्य लुटा बाज़ारों में, सुख शांति लुटी थी ग्रामों से |
कुसुमोंकी कलिता कोमलता, लुट गई सफल आरामों से||२५||
घर-घरसे लूटीगईशांति, निर्भयता बच्चों से लूटी |
वृद्धों से अनुभव लूट लिया, ‘आ बैल मार’ विपदा टूटी ||२६||
कन्या का शील भंग होता, यह देख पिता क्रोधित होता |
परवश था दुष्ट पठानों से, बेचारा सिर धुनकर रोता ||२७||
मासूम पशु सा क़त्ल किया, बंगाली दल तब महिला का |
हर वीथि सड़क चौराहों पर, अबला सा दल था महिला का ||२८||
मंदिर मस्जिद सब बंद हुए, विद्यालय भी सब हुए बंद |
निर्दोष, निरीह गुरु शिष का, आना जाना कर दिया बंद ||२९||
बन्दूक अनी को दिखलाकर, लाते जनता को घर बाहर |
फिर खुनी उन्ही भुसुंडी से, भूने जाते रहिला से नर ||३०||
जो जान बचा कर भाग खड़ा, उसका भी वे पीछा करते |
भय भीत मूसकों का जैसे, मार्जार श्वान पीछा करते ||३१||
निर्बाध निरीह निर्दोष बाल, दुध मुहे पटक भू पर देते |
मानो कलयुग के विविध कंस, माँ से हठात शिशु को लेते ||३२||
हर गेह गेह हर ग्राम ग्राम, नगरों के नगर तबाह किये |
खूनों की नदियाँ उमड़ चलीं, शवमय सब चौराह हुए ||३३||
बंगाल लौह मय था कटाह गोली गोलों का ईधन था |
थी आग कराल शतघ्नी की, भट्टी तोपों का तन था ||३४||
शोणित सर्पी सा उबल रहा, भुज, भुंड कंध सब पगते थे |
दर्बी भालों की अनी बनी, कान्दविक अनी जन तलते थे ||३५||
हाटक घी सब पिघल पड़ा, यों हाट बाट चौराहे पर |
बूंदी से मुंड लुड़कते थे तलते जिमि नगर कटाहों पर ||३६||
कहुं झाड़ीझाड़ी झंकाड़ पार्श्व, कर मुंड झुण्ड कंकाल जाल |
गेहों के अन्दर बैठि बैठि खाते रहते जम्बुक श्रंगाल ||३७||
अत्याचारों से भाग भाग जन जूह चला अब भारत में |
अशरण -जन को शरण मिली, तब राम कृष्ण के भारत में ||३८||
तब मुक्ति वाहिनी अनी बनी जय बंगला देश का था नारा |
कहते 'ओमार सुनार बंगला' जय बंग बन्धु का था नारा||३९||
बंगाली क्षुधित भेडिये से, अब भूल गए अपना आपा |
करने स्वतंत्र निज बंगला को, छिप छिपकर करते थे छापा ||४०||
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