ओ काश्मीर काले बादल, तेरे अम्बर पर उठने लगे |
ना जाने कब वे बरस पड़े, रह रह कर झगड़े घुलने लगे ||१||
तुझसे रण करने की धमकी, देता, करता जग चीख पुकार |
अमरीका सहित देश मुस्लिम, करते रहते मिथ्या प्रचार ||२||
भारत देवी तव रक्षक, थी चुस्त चतुर नित सावधान |
बुलवाती नित्य नए अतिथी, करने विवाद का समाधान ||३||
रसिया,जर्मन, इंग्लैंड देश अमरीका पावन प्रजा जूह |
समझा था रेड क्रोस का दल याह्या का जालिम चक्रव्यूह ||४||
वस्तु स्थिति स्वयं ही प्रकट हुई, निष्पक्ष परीक्षक के आगे |
मिथ्या प्रचार याह्या खां के, भग्न हुये जैसे धागे ||५||
वास्तविकता समझी रसिया ने, खुल गए पाक के कपट पत्र |
साहाय्य समर हो उभय मध्य, लिख दिया अमिट सा संधि पत्र ||६||
भारत रसिया की संधि हुई, मानव ने समझी मानवता |
समझो सुह्रद ने समझी थी, अपने सुह्रद की परवशता ||७||
खाई सुरंग निर्माण हुई, तोपों के मोके अटल बने |
चौकी थी पाक वाहिनी की, संगर के शिविर वितान तने ||८||
तब भी तू सोया रहा सिंह, निज मंद मध्य लखकर श्रंगाल |
अथवा प्रमुदित था वीर जात ! जैसे करगत लखि ग्रास व्याल ||९||
पर हुई सशंकित इंदिरा जी, बुलवाए सत्वर दल नेता |
नितरां विजय उपलब्धि –हित, मंत्रणा हुई "हो हम जेता" ||१०||
भारत रक्षा का भार सौंप, यात्रा विदेश का कियाsरम्भ |
शुभ अंत उसी का होता है , जिसका होता है शुभारम्भ ||११||
देने वस्तू का तत्व ज्ञान, करने भारत का रुख प्रकाश |
सौहार्द भाव को जागृत कर, करने शत्रु का पटल फाश ||१२||
जर्मनी,फ़्रांस, इंग्लैंड देश, पहुँची नेहरुजा अमरीका |
समझाया सबको न्याय पक्ष, पाक प्रभाव किया फीका ||१३||
सच्चे मानव ने मानवता, न्यायी ने समझा न्याय पंथ |
विचलित होते नहिं विघ्नों , बढ जाते पग नर के सुपंथ ||१४||
ओ काश्मीर ! कल थी तुझसे, इंदिरा का पाकर वरद हस्त |
रक्षा के साज सजे सबकी सैनिक मैगल थे मदोन्मत्त ||१५||
चप्पा चप्पा का अवलोकन, करते थे पुंगव वीर "लाल" |
सुनी 'मानिक-शा' गंम्भीर गिरा, हो जाते सैनिक जन निहाल ||१६||
नेहरु कुल कंलित कमिलिनी सी, फैलाती अपनी मदिर गंध |
थे मुग्ध सभी जन मन मंदिर, श्रद्धा सूत्रों के नवल बन्ध ||१७||
अथवा रक्षित उससे लखकर , बढ़ गया मनोबल नवोत्साह |
अथवा तड़ीता की तड़कन से भासित भारत के वारिवाह ||१८||
तू काश्मीर ! सोया जागा, स्वप्निल तन्द्रा में था विभोर |
क्रीडागत कलित कंजिनी से, करता पतंग ले रश्मि डोर ||१९||
जाता था लेता भद्र विदा, छिपता था हँसता था जाता |
पीछे को मुड़-मुड़ लखता था, प्यारी मुख को जाना जाता||२०||
थे राष्ट्रपति दिल्ली नगरी, नेहरुजा पहुँची कलकत्ता |
भारत-ललाट ! तन्द्रामय तू, सैनिक सतर्क थे अलबत्ता ||२१||
खग-कुल नीदों को लौट रहे, निलयों को श्रमिक बुद्धिजीवी |
कानन से द्विशफ-चतुष्पद थे, दफ्तर से लौटे अनुजीवी ||२२||
मनचले सनेही 'पिक्चर' में, हाटों में विचरें नर नारी |
रसवती मध्य गृहस्वामिनि थी, पश्चिम दिशि पहुंचे तम सारी ||२३||
मुमताज-ताज गोविन्दसिंह जी, जसवंत सिंह, रणजीत वीर |
हरिसिंह बहादुर शाह चले, खेलन जननी-भू हो अधीर ||२४||
हरी ऋषिग्रह विधु ईसा सन का, तीन दिसंबर था पुनीत |
पाकेशभेड़िये पिंगल ने, भारत पर ठानी तब अनीत ||२५||
आगरा, छम्ब अमृतसर में, बरसाये दुश्मन ने गोले |
जम्बु जसवंत बहादुर की, नगरी में छाये थे गोले ||२६||
छाया पति सत्वर भाग गये, स्तब्ध हुआ सैनिक प्रदेश |
मारो उस दुष्ट भेड़िये को, बौखुला भारत अशेष ||२७||
मूंछों पर पहुंचे वीर हस्त, संगीन शतघ्नी के चालक |
भूंखे बाघों से गरज पड़े, भू जल वायु अनि पालक||२८||
जा छिपे शिशु जननी उर में, गेहों में पहुंचे नर नारी |
इंदिरा के वचन श्रवण करने, आकुल व्याकुल जनता सारी ||२९||
विद्युत प्रकाश सब लुप्त हुआ, नगरों में छाया अन्धकार |
मानो निमग्न करने भू को, उमड़ा तमका सिंधू अपार ||३०||
टिमटिम करते थे लघु दीपक, धुंधली प्रकाश की रेखा ले |
मानो खद्योत छिपे हैं आ, कोने कोने में भय कोले ||३१||
रेडियो खुले घर कक्ष कक्ष, 'स्थानक' सब थे शांत मौन |
आज्ञा बिन संजय जननी के, कह सकता कुछ भी वीर कौन ||३२||
कलकत्ता से आई दिल्ली को, साहसिन सहज प्रधान-मंत्री |
'वाराह गिरि' के ढिंग पहुंची, स्पंदित थी हृद की तंत्री ||३३||
सेना नायक दल के नेता, दृढ़वीर 'अटल' से कर विचार |
जनता का लेकर आश्वासन, उत्तर रण हित निरधार वार ||३४||
आपात काल का निर्घोषण, दृढ़स्वर में किया था 'वाराह' |
मध्य निशा में इंदिरा का, सन्देश प्रसारण का प्रवाह ||३५||
फिर क्या था भारत का दल बल, दल बादल सा रण उमड़ चला |
चहुँ दिशि से प्रलय सिन्धु उमड़ा, या पावस घन-गन घुमड़ चला ||३६||
भारत माता के शत्रु को, क्षण में कर देंगे नष्ट भ्रष्ट |
हम तन मन धन न्यौछावर कर, माँ के काटेंगे विपत कष्ट ||३७||
हम डरें न गोली गोलों से, झंझा हिम के तूफानों से |
बढ़ते ही जायेंगे संगर में, भिड़ने को शत्रु जवानों से ||३८||
हम पाक सैन्य को मूली सा, काटेंगे रण में बढ़ बढ़ कर |
टेंकों को सैवर यानों को, तोड़ेंगे नेटों पर चढ़ कर ||३९||
काश्मीर कष्ट का भंजन कर, कल देंगे भारत जननी को |
हम भारत के सच्चे सपूत, दिखला देंगे निज जननी को ||४०||
जय भारत जय जय इंदिरा की, जय गाँधी लाल बहादुर की |
जय राष्ट्रपति जयहिंद कहो, जय नेहरु लाल जवाहर की ||४१||
हम उस अग्नि के पुतले हैं, जो भस्म पाक को कर देवें |
छाती पर चढ़ कर रक्त पियें, दुश्मन का दम दम में लेवें ||४२||
हे काश्मीर ! जय ध्वनि के संग , मतवाले बढ़ते जाते थे |
गंभीर गिरा में विजय गीत, रह रहकर गाते जातेथे ||४३||
करते थे मार तीव्र सर सी, विद्युत के नैट गगन में चढ़ |
आने से पहले जा भिड़ते, भूंखे बाघों से आगे बढ़ ||४४||
हे काश्मीर ! जब संयुग में, सेवर- विमान नभ में छाते |
तो यान विध्वंसक तोपों से, मुड़ मुड़ जाते गिरि जल जाते ||४५||
श्रीनगर जम्बु गिरि माला में, अग्नि की वर्षा धुआं धार |
पर प्रजा मनोबल स्थिर था, साहस भी उनमें था अपार ||४६||
हे काश्मीर ! हे कर्ण देश ! पाकेश पधारे क्षेत्र छम्ब |
तेरी छाती को छलने को, बरसाए तुझ पर विविध बम्ब ||४७||
पाकेश मित्र सब कहते थे, अपराधी हैं भारतवासी |
'परिषद' में युद्ध विसर्जन का, प्रस्ताव रखा निक्सन शासी ||४८||
बीटो से रसिया ने उनका, प्रस्ताव पूर्ण का दिया रद्द |
भुट्टो ने पत्रों को फाड़ा, यों प्रकट किया निज भाव क्रुद्ध||४९||
हे हरिसिंह के सिंह वीर, याह्या था क्रोधित भारत पर |
'परिषद' का दबा कोप प्रकटा, यों गजब ढहा कर भारतपर ||५०||
पर वीर महा इंजिनियर था, साधे पश्चिम रण की कमान |
आदेश पायलेटों को था, शत्रु से रहना सावधान ||५१||
गंभीर गिरा में मार्शल यह, बोला वीरो ! हो लो तैयार |
कर ध्वंस पवन पट्टी को तुम,नाकाम करो अरि एक वार ||५२||
ऋण आज चुकाना है तुमको, भावी पीढ़ी का शूरवीर |
हो जाय नष्ट वह दुष्ट सद्य, जिससे चिंतित है काश्मीर ||५३||
भारत पर करके वार वार, निज वार बनाता है अशांत |
कर दो तुम उसका अंत आज, पड़ जाये मृतक सम वह प्रशांत ||५४||
सुनकर उसकी गंभीर गिरा, वीरों में उमड़ा अति साहस |
नेत्रों में क्रोध उभर आया , थी रुधिर-मयी उनकी नस-नस ||५५||
वे भरने लगे उड़ाने अब , शत्रु की थल सेना में जा |
तब सेवर और मिराजों पर, हण्टर-सेप्टर से आगे जा ||५६||
शत्रु के बंकर टेंकों पर, तोपों पर बम बरसाने लगे |
वे माल भरे मोटर ट्रक को रेलों को सपुल उड़ाने लगे ||५७|
श्रंखला तोड़ दी रेलों की, कर दिया रडारों का भेदन |
तेलालय लपटों में बदले, पेटन1 टेंकों का विच्छेदन ||५८||
[1 पाक टेंक का नाम ]
सर गोधा , शेरकोट, मेंहर, चंदेर, सकेसर, मियांवाल |
मुल्तान, करांची, पेशावर, वम मय आह़तसे थे रिसाल ||५९||
वे करते कभी 'डोग फाइट'2 ले गुप्त केमराकी सहाय |
रॉकेट केनसन3 के द्वारा बरसाते बम अनु काल पाय ||६०||
[2विमानों के लड़ने की एक विधि]
[3लड़ाकू बम वर्षक विमान काएक अस्त्र]
रात्रि के गहन तोम-तम में, मारुत सा 'मारुत'4 उडाताथा |
पविसदृशघात संघातोंसे, दुश्मन के दल को दलता था ||६१||
[4बम-वर्षक विमान एच-एफ २४]
भयभीत हुई शत्रुसेना, नैटों5की खाकर प्रबल मार |
मिग6नैट तभी पीछा करते, भग जाते शत्रु हार हार ||६२||
[5नेट भारत का विमान]
[6रूस का विमान भारत प्रदत्त]
वीरो लड़ो हटो ना रण से, करो शत्रु की नींद हराम |
गरज गरज कर बोल रहे थे मंत्री श्री जग जीवन राम ||६३||
बढ़ता था साहस वीरों का, शत्रु होंसले होते पस्त |
इंदिरा के संकेत हेरि कर, पाकक्षेत्र करते गतहस्त ||६४||
किन्तु नेहरु की वीरसुता, बाघिन सी क्षण क्षण तड़क रही |
मानिक-शा, इला-नाथ7वाणी, बिजली पविसी तब कड़क रही ||६५||
[7एयर मार्शल पी.सी. मार्शल]
घुस गये इधर वे बंग-मध्य, जय हिंद सभी की बानी थी |
जय बोलो भारत माता की, शरणागत आन निभानी थी ||६७||
पद्मा, गंग, ब्रह्मपुत्र को, पार किया बलवानों ने |
रातों रात उतार दिया दल, तीर तीर पर यानों ने ||६८||
गाजी बेड़ा भग्न किया, नौका स्टीमर डूबा दिये |
चटगाँव फतह किया चट-पट, तोपों के मुख झुका दिये ||६९||
जैसोर को मिल्ला मुनिघाट, कर लिए हस्तगत तत्क्षण में |
उस वीर अरोड़ा कीवाणी, साहस वर्धक थीउस रणमें ||७०||
सेवर जेट विध्वंश किये, सब बर्बरता को दबा दिया |
भिड़ गये जान पर खेल वीर, शत्रुका साहस हवा किया ||७१||
वायु मार्ग पर कब्ज़ा कर, पूर्व पश्चिम को छिन्न किया |
ढाका पर घेरा डाल पुष्ट, बेतार तार को भिन्न किया ||७२||
'हथियार डाल दो नियाजी अब', यह मानिक शा की थी वानी |
कर दिया पूर्ण अपने प्रण को, रण पूर्व देश ने थी ठानी ||७३||
नियाजी ने आत्म समर्पण कर, भारत की जय स्वीकारी थी |
जय बांग्लादेश, इंदिरा जय, तब जनता बंग पुकारी थी ||७४||
रह गया देखता अमरीका, याहया की पूर्ण पराजय थी |
थी मुक्ति वाहिनी हर्ष लीन, भारतकी जय, सत की जय थी ||७५||
परिषद् में चीखा बार बार, सप्तम बेड़ा को भेज दिया |
आर्थिक सहयोग वियोग किया, रण करने पाक सहेज किया ||७६||
रह गए पाक के मित्र संघ, सब मिली धूल में चालाकी |
भारत का मित्र -प्रभंजन सा, दल ने अरि-धन एकाकी ||७७||
शरणागत बंग स्वतंत्र हुआ, कर दिया हिंद ने युद्ध बंद |
हे काश्मीर ! तू शत्रु से, हो गया उसी क्षण ही स्वच्छंद ||७८||
तेरे संकट की निशा गई, सुखपूर्ण प्रभात धरनि छाया |
मुंह की खाकर वह लौट गया, जो बार बार सन्मुख आया ||७९||
ईश्वरसे यही कामना है, हो जाय अखंड तूकाश्मीर |
तू भारत माँ का है ललाट, युग युग सुख भोगे देश वीर ||८०||
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