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काश्मीर के प्रति
काश्मीर के प्रति - कवि की कलम से
काश्मीर के प्रति - सम्पादकीय
कश्मीर के प्रति - पाठकों के पत्र
काश्मीर के प्रति - प्रथम सर्ग
काश्मीर के प्रति - द्वितीय सर्ग
काश्मीर के प्रति - तृतीय सर्ग
काश्मीर के प्रति - चतुर्थ सर्ग
काश्मीर के प्रति - पंचम सर्ग


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आभार..........

काश्मीर के प्रति - प्रथम सर्ग



ओ हिंद वीर के उच्च भाल,किन्नरियों के पावन, सुदेश |
तेरी महिमा का अमित गान,कर सकते क्या सारद गणेश ||१||

सौन्दर्य सलिल सरवर है तू,नर नलिन जहाँ सर्वत्र खिले |
मधुकरी किन्नरी वार चुकी , मधु -रस लेकर मन मुक्त भले ||२||

पर्वत पयस्विनी पादप गन , पुष्पावलि पावन विविध रंग |
आभूषित कलित मृदुल मधु मय , प्रकृति वनिता के विविध रंग ||३||

केसर कल कंज विहारिण हो , वर प्रकृति पद्मनी वाम बनी |
नर की क्या गणना है जिस पर , मोहित होते सुर यक्ष मुनि ||४||

तेरी कल कंज कली केसर , बादाम दाम सी फुलवारी |
फल फुल्ल–फूल मधुमय मेवा , निर्झर प्रपात हिममय वारी ||५||

भारत माता का तू ललाट , पृथ्वी का नंदन सा कानन |
अथवा तू भारत भामिनि का , मंजुल मयंक सा है आनन ||६||

कुछ तीव्र त्वरित गति से बहती , इठलाती सी इतराती सी |
नव वधू वितस्ता तव हिय पर , कल कलिका सी कलपातीसी ||७||

उसमें कंजादिक विविध पुष्प , मानो बहु दीप सुहाते हैं |
अपने प्रियतम की आरति को , आरत हर वारे जाते हैं ||८||

तरनी तटनी शीतल जल में , जब खोल पाल को बहती हैं |
मानो अलका नगरी नभ में , पर खोल परी बहु उडती हैं ||९||

त्वरिता गति से वे आजाकर , इतराना अमित दिखाती हैं |
लहरों से लह कर सलिल घाट , अनुपम नव नृत्य दिखाती हैं ||१०||

नव-वधु सपति उनमें मानों, यक्षिणी यक्ष सँग सजी हुई|
अथवा सुर-ललना नाथ-साथ, सुरसरिता में रति भरी हुई ||११||

ओ काश्मीर ! जब चन्द्र पूर्ण, जल व्यास मध्य दिखलाता है |
मानो बहु चन्द्र-मुखी लखकर, होकर विमुग्ध रम जाता है ||१२||

अथवा देकर निज सुधा दान, निज व्यक्त भावना करता है |
रति-पति का सहचर बनकर , मोहक आसव से भरता है ||१३||

अथवा बहु-रूप धार जल में, चाँदी चकई सा लगता है |
उत्तुंग तरंग तरंगित हो ,कर-कस की कसरत करता है ||१४||

तू आर्य भूमि, तू दिव्य देश, वैदिक प्रतीक तू किन्नरेश |
तू आदि सभ्यता का निधिवन , शुभ सुन्दर सारस्वत प्रदेश ||१५||

गिरिजा-पति किन्नर नृत्य हेरि,स्तव्ध हुए ज्यों पाथ-नाथ |
नभ-चुम्बित गढ़ सा अद्री-मृंग, हो गया प्राप्त कर के सनाथ ||१६||

मधु-मृदुल मनोहर दिव्य दृश्य,दृष्टीगत होता उच्च धाम |
हिम-गिरि का मान समान ताल,हर गृह ललाम कैलाश नाम ||१७||

श्रीनगर पार्श्व उत्तर दिशि में, मंगलमय पावन अमरनाथ |
जिसकी यात्रा अघ ओघ हरे,मनमुदित होत गिरि-सुता-नाथ ||१८||

जिसको आराधा बार बार ,वारण-तारक ने स-विधि साध |
वैष्णव देवी की दिव्य-दरी, भक्ती की धारा है अगाध ||१९||

तुझसे वो ब्रह्माण विज्ञ हुआ,जिससे थर्राता दिग-दिगंत |
ओ काश्मीर ! कारण जिसके, अवतीर्ण हुए रघवर अनंत ||२०||

भारत माता का तू ललाट,साहित्य,शास्त्र का सौख्य सिन्धु |
लहलही हुई है विश्व-बेलि, जिसकी लघु सी पा एक बिंदु ||२१||

जिसका पांडित्य प्रभाकर सा, खर-प्रभा दिगंत दिखाता था |
विद्वता बनारस मागध की, हारी, मुख बंग छिपाता था ||२२||

चाणक्य चतुर नृप नीति-विज्ञ, व्याकरण करण शालातुरीय |
उत्पन्न हुए जिन जननी से, उनका तू प्रांगण दर्शनीय ||२३||

है विश्व विदित तव बौद्ध धर्म, ललितादित का साहस अपार |
नतमस्तक था वह चीन देश, जिसके बल सन्मुख,बन सियार ||२४||

जिसके भय से थे भीत सभी, तिब्बत सिक्किम और देश चीन |
शक्ति शांति का आराधक, प्यारा कनिष्क तव-सरित-मीन ||२५||

पान द्वय से आदृत होता, वेदांत काव्य कामिलन दिव्य |
उस प्रतिभा का विजयी मम्मट, हे काश्मीर ! तव निधी भव्य ||२६||

अकबर महान के कारण तू ! मुगलों का भव्योद्यान बना |
जहाँगीर पुत्र, मुमताज़ ताज, का क्रीडाराम ललाम बना ||२७||

ललाट देश ! ओ ललन-धाम, लालिमा ललामी युक्त देश |
तेरा लावण्य विलोकन को, आते अशेष नित भव्यदेश ||२८||

आंग्ल देश के अवला गण, तुझको निहार थक जाते थे |
जगती तल का आश्चर्य नवल, पाश्चात्य पुरुष बतलाते थे ||२९||

क्रीडा स्थल अभिराम बना, गौरांग देव की ललना का |
काश्मीर ! कलित कलता तेरी, भोली कामिनि की छलना का ||३०||

तेरी प्रभुता, महिमा, गरिमा, नन्दिनवन कलित कामना से |
हो देश-प्रेम से ओत-प्रोत, जिसने कैकर्य भावना से ||३१||

दे लाख पिचत्तर मुद्रा के, गोरांग प्रभू को मन चाही |
तेरे तन से बेडी कठोर, दासता मयी यों कट वाही ||३२||

क्षत्रिय कुल कमल दिवाकर सा, वह काश्मीर! था सिंह गुलाब |
भुज विक्रम अद्रिसुता सुत सा, जननी अवनी प्रति नेह भाव ||३३||

रिपु गर्व रदन के भंजन को, तन मन में साहस था अपार |
तिब्बत गिलकिट तक रेख खींच, पहुँचाई सीमा चीन पार ||३४||

सुषमा भर दी तेरे तन में, जनता को दिया था दुलार |
उन्नत हो प्राज्ञ, प्रभा विकसे, कविता कामिनि से अतुल प्यार ||३५||

हो गया स्वतंत्र उन्नत मस्तक,हे भारत भू आनन अनूप|
सदियों से मानो आप्त किया, तू ने अपना अनुपम स्वरुप ||३६||

था गुलाब सिंह हृद का गुलाब , कविता प्रिय पंडित काश्मीर |
जन प्रिय शासक था भूप बना, शार्दूल सरस ‘रणवीर’ धीर ||३७||

कर दिये पूर्ण सब पितृ कार्य, हो गया उरिन यों काश्मीर |
सीमा को सुद्रढ़ बना डाला, रणवीर सिंह था सिंह वीर ||३८||

याचक थे पूर्ण अयाचक से, पांडित्य-प्रेम था मन उदार |
रणवीर -सिंह -सुत जब ‘प्रताप’, बन भूप तुझे किया पियार ||३९||

तब आंग्ल ,फ्रेंच ,डच , रोम नारि, जर्मनी , अरब तरुनी ललाम |
तव छवि निरावने आती थी, लज्जित होती तुझसे प्रकाम ||४०||

मुगलों की भामिनी चपला सी,चंचला चारू चीनी कुमारी |
रुसी, जापानी रद तृण ले, तव ललना ढिंग करती पुकार ||४१||

उनके भाई थे अमर सिंह, शुचि,सौभ्य ,सरल, चित सेउदार |
नि: संतति अपने अग्रज से, कैकयी-सुत सा करते पियार ||४२||

दे दिया पुत्र निज हरीसिंह, उनकी सेवा आराधन में |
पाया था जिसने प्रेम भाव, पितृव्य प्रताप सिंह मन में ||४३||

जिन्ना कुचाल का भंजन कर, मन रंजन जनता का करने |
भारत को सौंपा काश्मीर, तजि तुझे देश का हित करने ||४४||

मग-तरु-गृह सा निज राज्य त्याग, बम्बई मैं कीन्हा सुखद वास |
आजीवन प्रण को पूर्ण किया, फैली जिससे यश की सुवास ||४५||

उन हरीसिंह सर के पंकज, हैं काश्मीर गौरव अनूप |
उप राज्यपाल जन पालक थे, दानी हैं जैसे कर्ण भूप ||४६||

हैं कर्ण सिंह राजा तेरे, भारत के मंत्री अति उदार |
गो द्विज याचक पंडित कवि वो, विष्णू सा देते अतुल प्यार ||४७||

नेहरु जिसके विश्वास पात्र, त्यागी न्यायी पंडित सुजान |
गर्वित हो पाकर काश्मीर !, इन वल रत्न का शुभ्रखान ||४८||

तेरा वैभव ओ ललाट थान, तेरी कलिता काश्मीर देश |
पाने को अपहृत करने को, दृष्टी डाले हैं विविध देश ||४९||

तू अब भी आलस में सोया, गाता अनुराग भरा विहाग |
दुश्मन छाती पर खड़ा हुआ, तू जाग जाग यह राग त्याग ||५०||

2 टिप्‍पणियां:

  1. भारत माता का तू ललाट,साहित्य,शास्त्र का सौख्य सिन्धु |
    लहलही हुई है विश्व-बेलि, जिसकी लघु सी पा एक बिंदु ||



    बहुत-बहुत आभार |
    इस कालजयी प्रस्तुति के लिए ||

    बारी-बारी से---

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सुधाकर जी द्वारा अर्जित सम्मान / पुरस्कार

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*साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा 'साहित्य वारिधि' सम्मान
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